मैं समन्दरो का मिज़ाज हूँ
मैं समन्दरो का मिज़ाज हूँ अभी उस नदी को पता नहीं
सभी मुझसे आ के लिपट गयीं मैं किसी से जा के मिला नहीं
सभी मुझसे आ के लिपट गयीं मैं किसी से जा के मिला नहीं
मेरे दिल की सिम्त न देख तू किसी और का ये मुक़ाम है
यहाँ उसकी यादें मुक़ीम हैं ये किसी को मैने दिया नहीं
मुझे देख कर न झुका नज़र न किवाड़ दिल के तू बंद कर
तेरे घर मैं आउगा किस तरह कि मैं आदमी हूँ हवा नहीं
मेरी उम्र भर की थकावटें तो पलक झपकते उतर गयीं
मुझे इतने प्यार से आज तक किसी दूसरे ने छुआ नहीं
मेरे दिल को खुसबू से भर गया वो क़रीब से यूँ गुज़र गया
वो मेरी नज़र मैं तो फूल है उसे क्या लगा मैं पता नहीं
ये मुक़द्दारों की लिखावते जो चमक गयीं वो पढ़ी गयीं
जो मेरे क़लम से लिखा गया उसे क्यूँ किसी ने पढ़ा नहीं
ये 'मिज़ाज' अब भी सवाल है की ये बेरूख़ी है कि प्यार है,
कभी पास उसके गया नहीं कभी दूर उससे रहा नहीं
इस ग़ज़ल से कई लोगों ने छेड़ छाड़ की है ऊपर दी गयी ग़ज़ल मेरी पहली किताब 'समन्दरो का मिज़ाज' ( सन् 1995) में पहले
नंबर की ग़ज़ल है और उर्दू मैं प्रकाशित 'ग़ज़लनामा'(सन् 2001) मई यह पेज नंबर 78 पर है और वाणी प्रकाशन दिल्ली द्वारा प्रकाशित
ग़ज़ल संग्रह 'आवाज़' (2006) में पेज नंबर 128 पर है और 1997 मैं कलकत्ता से प्रकाशित उर्दू monthly magazine 'SHAHOOD' मैं nov/dec
1997 अंक मैं प्रकाशित हुई थी वा january 2009 में "वागर्थ" में प्रकाशित हुई है और मैने इसे भोपाल दूरदर्शन
व lukhanow दूरदर्शन द्वारा आयोजित मुशायरा याद-ए-फिराक़ में पढ़ी थी
Aapka-
Ashok Mizaj