Saturday, October 2, 2010

ग़ज़ल

मेरी दीवानगी, मेरी ये वहशत कम न हो जाए
तुझे छूने, तुझे पाने की चाहत कम न हो जाए

झपक जाएँ न पलकें आपका दीदार करने में
मिली है जो नसीबों से वो मुहलत कम न हो जाए

मैं तुझ से प्यार का इज़हार करने में झिझकता हूँ
बनी है जो तेरे दिल में वो इज्ज़त कम न हो जाए

'मिज़ाज' अपने अजीजों से भी मिलना दूरियां रखकर
ज़ियादा मिलने जुलने से मुहब्बत कम न हो जाए

दिल की परिभाषा

गुजरी हुई बहार की परछाइयों का घर
आबादियों के बीच है तन्हाइयों का घर
अच्छे बुरे में जंग सी होती है हर घड़ी
दिल है अलग मिज़ाज के दो भाइयों का घर