मेरी दीवानगी, मेरी ये वहशत कम न हो जाए
तुझे छूने, तुझे पाने की चाहत कम न हो जाए
झपक जाएँ न पलकें आपका दीदार करने में
मिली है जो नसीबों से वो मुहलत कम न हो जाए
मैं तुझ से प्यार का इज़हार करने में झिझकता हूँ
बनी है जो तेरे दिल में वो इज्ज़त कम न हो जाए
'मिज़ाज' अपने अजीजों से भी मिलना दूरियां रखकर
ज़ियादा मिलने जुलने से मुहब्बत कम न हो जाए
Saturday, October 2, 2010
दिल की परिभाषा
गुजरी हुई बहार की परछाइयों का घर
आबादियों के बीच है तन्हाइयों का घर
अच्छे बुरे में जंग सी होती है हर घड़ी
दिल है अलग मिज़ाज के दो भाइयों का घर
आबादियों के बीच है तन्हाइयों का घर
अच्छे बुरे में जंग सी होती है हर घड़ी
दिल है अलग मिज़ाज के दो भाइयों का घर
Tuesday, September 28, 2010
Monday, August 2, 2010
स्वतंत्रता दिवस पर एकता का गीत
एकता ही जिस्म है और एकता ही जान है
हम सभी साँसें इसकी ये अपना हिन्दुस्तान है
अपना हिन्दुस्तान है ये अपना हिन्दुस्तान.....
एकता ने मिलके आज़ादी दिलाई है यहाँ
एकता ने मिलकर सब खुशियाँ मनाई हैं यहाँ
एकता के दम से अपने देश का सम्मान है
अपना हिन्दुस्तान है ये अपना हिन्दुस्तान.....
जीतना प्यारा ये वतन है उतनी प्यारी एकता
मिट न पायेगी किसी सूरत में हमारी एकता
एकता ही शान अपनी एकता ही आन है
अपना हिन्दुस्तान है ये अपना हिन्दुस्तान.....
अनगिनत मस्जिद यहाँ पर अनगिनत मंदिर यहाँ
कितने गुरूद्वारे यहाँ पर कितने गिरजाघर यहाँ
हैं बहुत से धर्म लेकिन एकता का मान है
अपना हिन्दुस्तान है ये अपना हिन्दुस्तान.....
यह गीत 'वन्देमातरम' नामक विडियो एल्बम में गुरप्रीत कौर द्वारा गाया गया है यह विडियो एल्बम father पॉल पल्लिपदान के सौजन्य से नवतरंग communications dwara fransis डेविड के संगीत एवं mathew clayton के संगीत संयोजन में स्वर दर्पण जबलपुर से रिकॉर्ड किया गया जिसे you tube पर देखा जा सकता है.
Aapka-
Ashok Mizaj
हम सभी साँसें इसकी ये अपना हिन्दुस्तान है
अपना हिन्दुस्तान है ये अपना हिन्दुस्तान.....
एकता ने मिलके आज़ादी दिलाई है यहाँ
एकता ने मिलकर सब खुशियाँ मनाई हैं यहाँ
एकता के दम से अपने देश का सम्मान है
अपना हिन्दुस्तान है ये अपना हिन्दुस्तान.....
जीतना प्यारा ये वतन है उतनी प्यारी एकता
मिट न पायेगी किसी सूरत में हमारी एकता
एकता ही शान अपनी एकता ही आन है
अपना हिन्दुस्तान है ये अपना हिन्दुस्तान.....
अनगिनत मस्जिद यहाँ पर अनगिनत मंदिर यहाँ
कितने गुरूद्वारे यहाँ पर कितने गिरजाघर यहाँ
हैं बहुत से धर्म लेकिन एकता का मान है
अपना हिन्दुस्तान है ये अपना हिन्दुस्तान.....
यह गीत 'वन्देमातरम' नामक विडियो एल्बम में गुरप्रीत कौर द्वारा गाया गया है यह विडियो एल्बम father पॉल पल्लिपदान के सौजन्य से नवतरंग communications dwara fransis डेविड के संगीत एवं mathew clayton के संगीत संयोजन में स्वर दर्पण जबलपुर से रिकॉर्ड किया गया जिसे you tube पर देखा जा सकता है.
Aapka-
Ashok Mizaj
Wednesday, July 21, 2010
Kargil shaheedon ke naam 26 july- Kargil Shaheed Divas
यह ग़ज़ल मैने उस वक़्त कही थी जब हिन्दुस्तान और पाकिस्तान के बीच शांति वार्ता चल रही थी कि अचानक कारगिल पर एक अघोषित युद्ध शुरू हो गया था वही ग़ज़ल पेश-ए-ख़िदमत है
इतिहास लिख रहा है, वही फिर नया ज़माना
मेरे सब्र की कहानी, तेरे ज़ुल्म का फ़साना
कभी फिर न सर उठाए, इसे वो सबक़ सिखाना
जो दगा दे दोस्ती में, उसे क्या गले लगाना
ये हवा का रूख़ अनोखा, जो सभी ने आज देखा
है इधर से दोस्ताना, है उधर से कातिलाना
कहीं जंग से किसी का, कभी कुछ भला हुआ है
कि लहू तो फिर लहू है, इसे यूँ न तुम बहाना
जो वतन पे मिट रहे हैं, कोई जा के उन से कह दे
ये पयाम शायराना, ये सलाम शायरना
इतिहास लिख रहा है, वही फिर नया ज़माना
मेरे सब्र की कहानी, तेरे ज़ुल्म का फ़साना
कभी फिर न सर उठाए, इसे वो सबक़ सिखाना
जो दगा दे दोस्ती में, उसे क्या गले लगाना
ये हवा का रूख़ अनोखा, जो सभी ने आज देखा
है इधर से दोस्ताना, है उधर से कातिलाना
कहीं जंग से किसी का, कभी कुछ भला हुआ है
कि लहू तो फिर लहू है, इसे यूँ न तुम बहाना
जो वतन पे मिट रहे हैं, कोई जा के उन से कह दे
ये पयाम शायराना, ये सलाम शायरना
Aapka-
Ashok Mizaj
Sunday, June 20, 2010
हमें इंसाफ़ चाहिये (a ghazal on Bhopal Gas tragedy)
हमें इंसाफ़ चाहिये (a ghazal on Bhopal Gas tragedy)
जिसने सुना वो सुन के यकायक सिहर गया
इक रात में ही शहर ये लाशों से भर गया
पत्ते बिखर रहे हैं अभी तक जगह-जगह
उस सरफ़िरी हवा का जहाँ तक असर गया
कुछ लोग कह रहे हैं कि मुंसिफ का था कुसूर
मुजरिम हिला के हाथ सरे आम घर गया
इस हादसे का अस्ल गुनहगार कौन है
ये बात सोचने में ज़माना गुजर गया
मुजरिम कहीं भी हो हमें इंसाफ़ चाहिए
इक बार फिर ये आसमाँ नारों से भर गया
जिसने सुना वो सुन के यकायक सिहर गया
इक रात में ही शहर ये लाशों से भर गया
पत्ते बिखर रहे हैं अभी तक जगह-जगह
उस सरफ़िरी हवा का जहाँ तक असर गया
कुछ लोग कह रहे हैं कि मुंसिफ का था कुसूर
मुजरिम हिला के हाथ सरे आम घर गया
इस हादसे का अस्ल गुनहगार कौन है
ये बात सोचने में ज़माना गुजर गया
मुजरिम कहीं भी हो हमें इंसाफ़ चाहिए
इक बार फिर ये आसमाँ नारों से भर गया
Aapka-
Ashok Mizaj
Saturday, June 19, 2010
स्व. चंद्रभान बरहमन को समर्पित ग़ज़ल
मेरे वनवास में सब ठीक है बस एक अड़चन है
न कश्ती है, न केवट है, न सीता है, न लछमन है
उदासी छाई रहती है तो पतझड़ जैसा लगता है
बरस जाती हैं जब आँखें तो लगता है कि सावन है
ज़माने से शिकायत कुछ नहीं है सिर्फ़ इतना है
अभी कुछ रोज़ से मेरी ख़ुद अपने दिल से अनबन है
हमारी शायरी भी नौकरी के साथ चलती है
कभी खटपट नहीं करती, ये कितनी अच्छी सौतन है
न जाने आज क्या एलान कर डाला है साकी ने
जानबे शैख़ हैरत में हैं, सकते में बिरहमन है
न हिन्दी है, न उर्दू है, न अरबी फ़ारसी लाज़िम
जो दिल की बात पहुँचाए, दिलों तक शायरी फ़न है
( यहाँ शम्मा हिंदी बोल चाल में प्रचलित उच्चारण से लिया गया है )
न कश्ती है, न केवट है, न सीता है, न लछमन है
उदासी छाई रहती है तो पतझड़ जैसा लगता है
बरस जाती हैं जब आँखें तो लगता है कि सावन है
ज़माने से शिकायत कुछ नहीं है सिर्फ़ इतना है
अभी कुछ रोज़ से मेरी ख़ुद अपने दिल से अनबन है
हमारी शायरी भी नौकरी के साथ चलती है
कभी खटपट नहीं करती, ये कितनी अच्छी सौतन है
न जाने आज क्या एलान कर डाला है साकी ने
जानबे शैख़ हैरत में हैं, सकते में बिरहमन है
न हिन्दी है, न उर्दू है, न अरबी फ़ारसी लाज़िम
जो दिल की बात पहुँचाए, दिलों तक शायरी फ़न है
'मिज़ाज' अच्छी ग़ज़ल को देखकर महसूस होता है
जलाई थी जो खुसरो ने वो शम्मा अब भी रोशन हैस्व. चंद्रभान बरहमन को समर्पित ग़ज़ल
( यहाँ शम्मा हिंदी बोल चाल में प्रचलित उच्चारण से लिया गया है )
Aapka-
Ashok Mizaj
Saturday, June 5, 2010
एकता के नाम
ये आँखों में नहीं रुकते, बहुत हैं सरफिरे आँसू
कि ग़म में भी गिरे आँसू ख़ुशी में भी गिरे आँसू
लहू का रंग गाड़ा और हल्का हो भी सकता है
मगर ये एक जैसे हैं तेरे आँसू मेरे आँसू
Aapka-
कि ग़म में भी गिरे आँसू ख़ुशी में भी गिरे आँसू
लहू का रंग गाड़ा और हल्का हो भी सकता है
मगर ये एक जैसे हैं तेरे आँसू मेरे आँसू
Aapka-
Ashok Mizaj
Thursday, June 3, 2010
अखबार की तरह
हर चीज़ तौलते हैं वो बाज़ार की तरह
उनकी दुआ सलाम है व्यापार की तरह
मुद्दे की बात पहले जहाँ थी वहीं रही
आए भी वो गये भी वो अखबार की तरह
ख़ुशियाँ हमें तो सिर्फ ख़्याली पुलाव हैं
मुफ़लिस के घर में ईद के त्योहार की तरह
उनकी दुआ सलाम है व्यापार की तरह
मुद्दे की बात पहले जहाँ थी वहीं रही
आए भी वो गये भी वो अखबार की तरह
ख़ुशियाँ हमें तो सिर्फ ख़्याली पुलाव हैं
मुफ़लिस के घर में ईद के त्योहार की तरह
यूँ सरसरी निगाह से देखा न कीजिये
पढ़िए न मुझको मांग के अखबार की तरह
चट्टान बन के सामने आए थे जो कभी
गिरने लगे वो रेत की दीवार की तरह
गिरने लगे वो रेत की दीवार की तरह
अपना गुरूर छोड़ के मिलते हैं जब 'मिज़ाज'
उनका वजूद लगता है गुलज़ार की तरह
उनका वजूद लगता है गुलज़ार की तरह
Saturday, May 1, 2010
पहली मुलाकात
मैं अपनी ज़िंदगी की वो खुशनसीब ग़ज़ल आपके सामने पेश कर रहा हूँ जो मेरी शुरुआती शायरी के दौर (1992) की है और इसी ग़ज़ल से मेरा तखल्लुस मिज़ाज हुआ, मेरी पहली ग़ज़ल संग्रह का नाम भी इसी ग़ज़ल से समन्दरो का मिज़ाज हुआ
मेरे दिल की सिम्त न देख तू किसी और का ये मुक़ाम है
यहाँ उसकी यादें मुक़ीम हैं ये किसी को मैने दिया नहीं
मुझे देख कर न झुका नज़र न किवाड़ दिल के तू बंद कर
तेरे घर मैं आउगा किस तरह कि मैं आदमी हूँ हवा नहीं
मेरी उम्र भर की थकावटें तो पलक झपकते उतर गयीं
मुझे इतने प्यार से आज तक किसी दूसरे ने छुआ नहीं
मेरे दिल को खुसबू से भर गया वो क़रीब से यूँ गुज़र गया
वो मेरी नज़र मैं तो फूल है उसे क्या लगा मैं पता नहीं
ये मुक़द्दारों की लिखावते जो चमक गयीं वो पढ़ी गयीं
जो मेरे क़लम से लिखा गया उसे क्यूँ किसी ने पढ़ा नहीं
ये 'मिज़ाज' अब भी सवाल है की ये बेरूख़ी है कि प्यार है,
कभी पास उसके गया नहीं कभी दूर उससे रहा नहीं
इस ग़ज़ल से कई लोगों ने छेड़ छाड़ की है ऊपर दी गयी ग़ज़ल मेरी पहली किताब 'समन्दरो का मिज़ाज' ( सन् 1995) में पहले
नंबर की ग़ज़ल है और उर्दू मैं प्रकाशित 'ग़ज़लनामा'(सन् 2001) मई यह पेज नंबर 78 पर है और वाणी प्रकाशन दिल्ली द्वारा प्रकाशित
ग़ज़ल संग्रह 'आवाज़' (2006) में पेज नंबर 128 पर है और 1997 मैं कलकत्ता से प्रकाशित उर्दू monthly magazine 'SHAHOOD' मैं nov/dec
1997 अंक मैं प्रकाशित हुई थी वा january 2009 में "वागर्थ" में प्रकाशित हुई है और मैने इसे भोपाल दूरदर्शन
व lukhanow दूरदर्शन द्वारा आयोजित मुशायरा याद-ए-फिराक़ में पढ़ी थी
मैं समन्दरो का मिज़ाज हूँ
मैं समन्दरो का मिज़ाज हूँ अभी उस नदी को पता नहीं
सभी मुझसे आ के लिपट गयीं मैं किसी से जा के मिला नहीं
सभी मुझसे आ के लिपट गयीं मैं किसी से जा के मिला नहीं
मेरे दिल की सिम्त न देख तू किसी और का ये मुक़ाम है
यहाँ उसकी यादें मुक़ीम हैं ये किसी को मैने दिया नहीं
मुझे देख कर न झुका नज़र न किवाड़ दिल के तू बंद कर
तेरे घर मैं आउगा किस तरह कि मैं आदमी हूँ हवा नहीं
मेरी उम्र भर की थकावटें तो पलक झपकते उतर गयीं
मुझे इतने प्यार से आज तक किसी दूसरे ने छुआ नहीं
मेरे दिल को खुसबू से भर गया वो क़रीब से यूँ गुज़र गया
वो मेरी नज़र मैं तो फूल है उसे क्या लगा मैं पता नहीं
ये मुक़द्दारों की लिखावते जो चमक गयीं वो पढ़ी गयीं
जो मेरे क़लम से लिखा गया उसे क्यूँ किसी ने पढ़ा नहीं
ये 'मिज़ाज' अब भी सवाल है की ये बेरूख़ी है कि प्यार है,
कभी पास उसके गया नहीं कभी दूर उससे रहा नहीं
इस ग़ज़ल से कई लोगों ने छेड़ छाड़ की है ऊपर दी गयी ग़ज़ल मेरी पहली किताब 'समन्दरो का मिज़ाज' ( सन् 1995) में पहले
नंबर की ग़ज़ल है और उर्दू मैं प्रकाशित 'ग़ज़लनामा'(सन् 2001) मई यह पेज नंबर 78 पर है और वाणी प्रकाशन दिल्ली द्वारा प्रकाशित
ग़ज़ल संग्रह 'आवाज़' (2006) में पेज नंबर 128 पर है और 1997 मैं कलकत्ता से प्रकाशित उर्दू monthly magazine 'SHAHOOD' मैं nov/dec
1997 अंक मैं प्रकाशित हुई थी वा january 2009 में "वागर्थ" में प्रकाशित हुई है और मैने इसे भोपाल दूरदर्शन
व lukhanow दूरदर्शन द्वारा आयोजित मुशायरा याद-ए-फिराक़ में पढ़ी थी
Aapka-
Ashok Mizaj
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